दिल्ली blast वो कार, Hyundai i20 थी

 


उस शाम — उसी भीड़भाड़ वाले वक्त में, जब शहर अपना दिन धीरे धीरे समेट रहा था — हुई वो आवाज़, जिसने सब कुछ झकझोर दिया। लाल किला के पास एक कार में अचानक विस्फोट हुआ। इसकी गूँज सिर्फ ध्वनि नहीं थी; एक तरह का डर, एक तरह की अनिश्चितता थी, जिसने हमारी रफ्तार को रोका। 


वो कार, Hyundai i20 थी, जिसे पुलिस ने बताया है कि विस्फोट के समय उसमें मौजूद थी। शाम करीब 6.52 बजे थी, जब यह घटना हुई। 


मैं खुद अक्सर उस इलाके से होकर गुजरता हूँ—बच्चों की चिल्लाहट, रिक्शों की खिड़खिड़ाहट, दुकानों की लाइट,—और मान लीजिए, उसी वक्त अचानक वो आहट सुनना, जब आप न जानते हों कि यह ‘सिर्फ आहट’ है या कुछ बहुत बड़ा। कुछ ऐसा हुआ। अचानक उस चिंगारी ने कई जिंदगीयों में आग लगा दी। कम-से-कम आठ लोग मारे गए, लगभग 20 घायल हुए। 


जब मैंने उस रिपोर्ट्स में पढ़ा कि विस्फोट के तुरंत बाद लोग भागते दिखे, कुछ ने अपने बच्चों को अंगुली पकड़कर खींचा, कुछ गाड़ियों में गिरे, कुछ दुकानदार खामोश हो गए—तो मन एक अजीब सी खामोशी से भर गया। उस खामोशी में एक सवाल था—“कब तक?”


मीडिया में एक शख्स ने बताया,


मैं चिल्लाया, भागा… और देखा एक हाथ सड़क पर पड़ा था।” 


यह सिर्फ गिरना नहीं था—यह एक तरह की बेबसी थी, उस वक्त जिसे शायद शब्दों में बयां करना आसान नहीं।


उसके बाद सवाल उठे—क्या यह आतंकी हमला था? क्योंकि पुलिस ने Unlawful Activities (Prevention) Act यानी UAPA के तहत मामला दर्ज किया है। एक -- जो अक्सर बड़े हमलों के मामले में इस्तेमाल होती है। प्रारंभिक जांच बताती है कि यह शायद ‘फिदायीन’ हमला हो सकता है, और घटना का सिलसिला फरीदाबाद से जुड़े मॉड्यूल तक जाता दिख रहा है। 


यह सुनते ही दिल बैठ जाता है—सोचिए, एक ऐसा हमला, जिसे शायद किसी ने सोचा तक नहीं था, अचानक हमारे बीच हो गया।


और उस रात बाद में, सुरक्षा का स्तर अचानक बढ़ गया। भारत के कई हिस्सों में उच्च अलर्ट घोषित हुआ। 


मेरी याद आती है उस वक्त की जब हम बचपन में डरते थे, “अगर कोई बम फटा”। आज वही डर सड़कों पर घूमने लगे हैं, वो “अगर” अब “हुआ है” बन गया।


लेकिन इसके बीच में एक बात और है—हमारी मानवता। जिन परिवारों ने अपनी एक उम्मीद खो दी, जिन घायल अभी अस्पताल में जूझ रहे हैं—उनके लिए शब्द बहुत कम पड़ते हैं। 


मैं अपने मन से कह रहा था—अगर मैं उस सड़क पर होता, क्या मैं भाग पाता? क्या मेरे पास मौका होता किसी को पकड़ने, किसी को बचाने का? यह सवाल असहज है।


अगले दिन, जब मैं अखबारों में पढ़ा कि वहां के सीसीटीवी फुटेज से पता चला है कि कार पार्किंग में लगभग दो-तीन घंटे रुकी रही थी, उसके बाद धीमी गति से चलकर एक ट्रैफिक लाइट पर रोकी गई थी, तब मेरा सीना ढीला हो गया। यह सिर्फ आंकड़े नहीं हैं—यह संकेत हैं कि यह कोई आकस्मिक घटना नहीं थी।


और जब यह खबर आई कि कार का रजिस्ट्रेशन बदल चुका था, मालिक-हिसाब बदल चुके थे—तो यह वाकई चिंताजनक हो गया। 


मुझे लगता है ऐसे वक्त में हमें सिर्फ सूचना नहीं चाहिए, बल्कि साथी-सहारा चाहिए। “ध्यान रखो”-जैसे शब्दों की जरूरत बढ़ जाती है। अगर मैं आपसे कहूँ—अपने आसपास कुछ अलग दिखे, तो कृपया नजरअंदाज़ न करें। क्योंकि एक छोटी सी सूचना, एक छोटी सी सतर्कता बहुत बड़ी राहत बन सकती है।



अंत में, मैं यही कहना चाहूंगा—हम डर के आगे झुकेंगे नहीं। हम सहेंगे नहीं। हम अपने शहर को, अपने रिश्तों को, अपनी उम्मीदों को सुरक्षित रखेंगे। आज जो हुआ, वह हमें याद दिलाता है कि हमारी ज़िंदगी कितनी नाज़ुक है। पर साथ ही यह याद दिलाता है कि जब हम एक-दूसरे का हाथ थाम लेंगे, तो कोई बम, कोई नापाक इरादा हमें टूटने नहीं देगा।


मृतकों को मेरी श्रद्धांजलि। घायल-परिवारों को मेरी संवेदना। और आपसे मेरा अनुरोध—अपने आसपास देखें, कुछ महसूस करें, किसी को पूछें “क्या ठीक है?” क्योंकि कभी-कभी हमारी देखभाल, दूसरों की जान की एहमियत बना देती है।


समय जब सही होगा, सारा सच सामने आएगा। तब तक, हम सचेत रहेंगे, हम साथ रहेंगे।

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