शनिवार, 7 जून 2025

ईद-उल-अज़हा की हार्दिक शुभकामनाएँ:



ईद-उल-अज़हा, जिसे हम बकरीद के नाम से भी जानते हैं, सिर्फ एक त्योहार नहीं बल्कि इबादत, त्याग और भाईचारे की एक मिसाल है। यह वह पवित्र दिन है जब हज़रत इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) ने अल्लाह के हुक्म पर अपनी सबसे प्यारी चीज़ – अपने बेटे इस्माइल (अलैहिस्सलाम) – को कुर्बान करने का फैसला किया था। अल्लाह ने उनकी इस परीक्षा में सच्चाई देखी और इस्माइल की जगह एक दुम्बा (मेढ़ा)


कुर्बान करवाया। 

यही वजह है कि आज भी हम इस दिन कुर्बानी देते हैं, लेकिन साथ ही यह त्योहार हमें यह भी सिखाता है कि सच्ची कुर्बानी वही है जो खुद के अहंकार, लालच और स्वार्थ की दी जाए।


ईद-उल-अज़हा का असली मतलब

आजकल हम देखते हैं कि कुछ लोगों के लिए बकरीद सिर्फ मीट खाने और नए कपड़े पहनने का दिन बनकर रह गया है। लेकिन अगर हम इस पर्व की गहराई में जाएँ, तो पाएँगे कि यह हमारे इमान की परख का दिन है। कुर्बानी का जानवर काटते वक्त हमारे दिल में क्या है? क्या हम सिर्फ रस्म अदायगी कर रहे हैं, या फिर हम उसी भावना के साथ अल्लाह के आगे सर झुका रहे हैं, जैसा इब्राहिम (अलैहिस्सलाम) ने किया था?


इस ईद पर, चलिए खुद से एक वादा करें – हम सिर्फ जानवर की कुर्बानी नहीं देंगे, बल्कि अपने अंदर के गुस्से, बेईमानी और दूसरों को दुख देने की आदत को भी कुर्बान करेंगे। क्योंकि अल्लाह को हमारे दिल की नम्रता चाहिए, सिर्फ मांस नहीं।


कुर्बानी का ग़रीबों से जुड़ाव

एक बड़ी खूबसूरत बात जो इस्लाम ने सिखाई, वह यह कि कुर्बानी का गोश्त तीन हिस्सों में बाँटा जाता है – एक हिस्सा अपने लिए, एक रिश्तेदारों के लिए और तीसरा हिस्सा ग़रीबों के लिए। यह नियम हमें याद दिलाता है कि ईद सबकी होती है – चाहे कोई अमीर हो या ग़रीब।


आज के दौर में जहाँ लोग अपने लिए तो महँगे से महँगा गोश्त खरीद लेते हैं, लेकिन पड़ोस में कोई भूखा सो जाए, तो उसकी परवाह नहीं करते – ऐसे में यह पर्व हमें इंसानियत की याद दिलाता है। अगर हम सच में इस ईद को मनाना चाहते हैं, तो ज़रूरी है कि हम उन लोगों तक अपनी खुशियाँ पहुँचाएँ जिनके लिए मीट खरीदना एक सपना है।


ईद की नमाज़ और भाईचारे का संदेश

ईद-उल-अज़हा की नमाज़ सामूहिक रूप से पढ़ी जाती है, जहाँ अमीर-ग़रीब, छोटे-बड़े सब एक साथ एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं। यह नज़ारा ही बताता है कि इस्लाम में किसी तरह का भेदभाव नहीं। लेकिन क्या हम वाकई इस सबक को अपनी ज़िंदगी में उतारते हैं?


क्या हमारे दिल में मुस्लिम-गैर मुस्लिम, जाति-बिरादरी या अमीर-ग़रीब का भेद है? अगर हाँ, तो फिर हमारी कुर्बानी अधूरी है। ईद का असली मकसद है दिलों को जोड़ना, न कि तोड़ना।


बच्चों को इस्लामी तालीम दें

आजकल बच्चे ईद को सिर्फ नए कपड़ों, ईदी और स्वादिष्ट खाने तक सीमित समझने लगे हैं। हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उन्हें इस पर्व की तारीख़ और उसके पीछे की शिक्षाओं से अवगत कराएँ। उन्हें बताएँ कि कुर्बानी क्यों दी जाती है? हज़रत इब्राहिम और इस्माइल (अलैहिस्सलाम) की कहानी क्या थी? अगर हमने आज की पीढ़ी को यह समझा दिया, तो वे इस पर्व को सिर्फ एक रस्म नहीं, बल्कि एक ज़िम्मेदारी के तौर पर मनाएँगे।


दुआओं का महत्व

ईद सिर्फ खुशियाँ मनाने का दिन नहीं, बल्कि अल्लाह से माफ़ी और रहमत की दुआ माँगने का भी दिन है। इस दिन हमें अपने गुनाहों की माफ़ी माँगनी चाहिए, अपने रिश्तों को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए और उन लोगों के लिए दुआ करनी चाहिए जो मुसीबत में हैं।


ईद मुबारक की शुभकामनाएँ

आख़िर में, आप सभी को ईद-उल-अज़हा की ढेर सारी मुबारकबाद! यह दिन आपके लिए खुशियाँ, बरकत और अमन लेकर आए। आपकी कुर्बानी क़ुबूल हो, आपके दिल से गिले-शिकवे दूर हों और आपके घर में अल्लाह की रहमत बरसे।

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